गुपकाईं गुपकाईं ( मगही कहानी)
गुपकाईं-गुपकाईं
: दिलीप कुमार पाठक
बहिन के हाले में रोकसदी हो गेलक. मइया-बाबुजी हरिद्वार गेलन हे. बच गेलन देवन आउ उनकर पड़ाइन.
कभी दाल टनक, त कभी नमके नदारद. कभी एतना मिर्चाई कि सुसुअइते परान जाय के होबे लगे. त कभी हरदी हेतना कि गरगट अलाइन. “का हो पड़ाइन? तोरा का हो गेलक ?”
बस का, कहाँ जयब?
“कमाय न धमाय के आउ चललन हे……….. दिन भर घरे में बइठ के पिंगिल बुकs हथ.”
” अच्छा पड़ाइन, ठीक हे. हम चली कमाय, द हमर गठरी.”
चल देलन देवन.
कुछ पहर बितल, होलक दूपहरिया. बड़ राहत मिललक पड़ाइन के. थोड़ा सुतलन. ओकरा बाद जगलन. चुल्हा जरौलन. पुआ के लोर बनाके पुआ-पुड़ी आउ आलुदम बनयलन आउ खाय लगलन.
जब कुछ बचलक, एकाएक धरन के ऊपर से अबाज आबे लगलक, “सास न ननद, घर अपने अनन्द, गुपकाईं-गुपकाईं.”
पंड़ाईन सुन के ठक रह गेलन. देखित हथ, छप्पर के धरण से देवन चिपकल हथ.