गुनगनी धूप
गीत
कुदरत ने बदला निज रूप।
भाने लगी गुनगनी धूप।
पत्ते -पत्ते दूब -दूब पर,
तुहिन सजे मोती बनकर।
कुहरे की जाली से जैसे,
धूप आ रही है छनकर।
हाथ पसारे सूर्य करों ने,
बीने मोती दीप्त अनूप।
भाने लगी गुनगनी धूप।
पाटल गेंदे गुलमोहर अब,
डाली पर मुस्काते हैं।
जला अँगीठी चार लोग निज,
दिल की बात सुनाते हैं।
अग्नि शिखाऐं प्यारी लगती,
प्यारे लगें सूर्य जग भूप।
भाने लगी गुनगनी धूप।
कठिन निकलना विस्तर से,
छुअन ताप की भाती है।
शीत पवन जब चुभने लगती,
ठिठुरन खूब बढ़ाती है।
राग रदों के बजे ठंड से,
बनी देह भी जैसे लूप।
भाने लगी गुनगनी धूप।
अंकित शर्मा ‘इषुप्रिय’
रामपुरकलाँ, सबलगढ़(म.प्र.)