गुज़रते कैसे हैं ये माह ओ साल मत पूछो
ग़ज़ल
गुज़रते कैसे हैं ये माह-ओ-साल मत पूछो
कि ज़िंदगी का हमारी तो हाल मत पूछो
है क़ीमतों में बड़ा ही उछाल मत पूछो
कमाते कैसे है हम रोटी-दाल मत पूछो
थमाये किसने है तलवार, ढाल मत पूछो
सड़क पे घूम रहे नौनिहाल मत पूछो
शिकम की आग बुझाते हैं अपनी कैसे हम
हराम है कि है रिज़्क-ए-हलाल मत पूछो
(शिकम=पेट। रिज़्क=भोजन)
बस एक हम पे ही वाजिब हुई है क़ुर्बानी
सो रोज़ रोज़ ही होते हलाल मत पूछो
पलट के आयेंगे सौ सौ सवाल तुम पर ही
है लाज़मी यही कोई सवाल मत पूछो
‘अनीस’ इससे ही था मुश्क-बार घर मेरा
ये किसने काट दी फूलों की डाल मत पूछो
(मुश्क-बार =सुगंधित)
– अनीस शाह ‘अनीस’