गुजरा वो जमाना याद आये
गुजरा वो जमाना याद आये
जो बीत गया मेरे बचपन का
हाथ पकड़कर मां का चलना
पांव के नन्हे कदमतालों से।
बालसखा संग खेलने जाते
लड़ते-झगड़ते, हम इठलाते
भूख-प्यास की रहती न चिंता
मात-पिता, हमे खाना खिलाते
शोरगुल से सदा गूंजता रहता
परिवेश, हमारे ठहाकों से।
धीरे-धीरे बढ़ने लगे और
विद्यालय में पढ़ने गए
भविष्य का बस्ता, पीठ पर लादे
हम विद्यालय जाने लगे
माता-पिता का मान बढ़ाएं
यहीं उम्मीदें उनको थी, हमसे।
नई उमंगें व नई तरंगों, से हम
गृहस्थी का बोझ सम्भाले
सजे-सँजोए, सपनों का न पता
घर-परिवार व बच्चों की चिंता
कुछ है उम्मीदें जो पूरी हों
भाई-बहन को,मेरे जीवन से।
बचपन की यादों को संजोने को
बच्चे को सुनते, हम लोरी
खिलौने बनाते, बच्चों को घुमाते
बैठकर घर के आंगन में
शायद ही वो दिन वापस हो
जो बीत गया मेरे बचपन का।
– सुनील कुमार