गीत
मुखड़ा-
घटा घिरी घनघोर गगन में, गीत प्रेम के गाती है।
चंचल काया नर्तन करती, राग-रंग बरसाती है।
अंतरा-(1)
लौट शहर से जब घर आता मेला बहुत लुभाता है,
लाल-हरित चूड़ी ना लाना चाव वधू का भाता है।
सजी दुकानें ,खेल मदारी, झूला बहुत सुहाता है,
सजी टोलियाँ लोग घूमते ‘गीत’ सहज हर्षाता है।
रूप-सजीला, रंग-रंगीला,गदराया पौरुष तककर-
सखी संग मदमाती ‘माला’ पीछे मुड़ इठलाती है।
चंचल काया नर्तन करती राग-रंग बरसाती है।
(2)
गोरे मुख पर काले कुंतल अधर चूम बल खाते हैं,
गाल गुलाबी, भँवर सलौने दीवाना कर जाते हैं।
मौन प्रीत का प्याला पीकर दृग घायल कर जाते हैं,
भीगा बदन, लजाती अँखियाँ नेह सरस बरसाते हैं।
पूनम-मंजुल गात सलौने, कनक-कलेवर दिखलाकर-
स्वर्गलोक की अनुपम बाला सिहरन सी भर जाती है।
चंचल काया नर्तन करती राग-रंग बरसाती है।
(3)
समझ ना पाया प्रेम विधा मैं,अनुरागी मन बहक गया,
कुसुमित अभिलाषाएँ उपजीं मन का उपवन महक गया।
सरगम गा उन्मुक्त कंठ से उन्मादित स्वर चहक गया।
भोगी जीवन उर अकुलाता प्यासा सावन दहक गया।
अरमानों के दीप जलाकर याचक बन जब मैं तरसूँ-
प्रीत जगाकर ,अगन लगाकर मादकता सरसाती है।
चंचल काया नर्तन करती राग-रंग बरसाती है।
(4)
नख से शिख तक रूप सजाकर यौवन का श्रृंगार करो,
भोर की रश्मि प्रथम प्रेम का आमंत्रण स्वीकार करो।
उल्लासित पुरवाई बनकर जीवन में तुम प्यार भरो।
नेह ललित सौरभ को पाकर सपनों को साकार करो।
मधुर मिलन की आस सँजोए तेरी सूरत को तरसूँ-
बाँह पसारे राह तकूँ मैं अंग छुअन तरसाती है।
चंचल काया नर्तन करती, राग-रंग बरसाती है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर