गीत
बिगडी बना दो हे गोपाल
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बनकर माँझी पार उतारो
बिगड़ी बना दो हे गोपाल!
अँधियारा मन विचलित करता
माया जग को ठगने आई
भव सागर में डूबे नैया
कैसी मैंने किस्मत पाई।
ठोकर खाकर दर-दर भटकूँ-
राह दिखाओ नंद के लाल।
बिगड़ी बनादो हे गोपाल!
तुम बिन गोपी ग्वाल अधूरे
प्यासी यमुना गीत न भाएँ
कोई ऐसा रास रचा दो
त्रस्त धरा पर जन सुख पाएँ।
क्या तेरा क्या मेरा जग में-
मानव जीवन हुआ बेहाल।
बिगड़ी बनादो हे गोपाल!
निष्ठुर मन अब तड़प रहा है
रिश्ते-नाते लगते झूठे
इक जीवन मेरा भी तारो
जनम-मरण का बंधन छूटे।
भूल गई हूँ हँसी-ठिठोली-
काटो प्रभू ये माया जाल।
बिगड़ी बनादो हे गोपाल!
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर