गीत
“दीप जला रख छोड़ा है”
********************
काली रात विरह की आई, दीप जला रख छोड़ा है।
सजल नयन सूरत को तरसें, तम से नाता जोड़ा है।।
यौवन से मदमाती रजनी,
सिहरन सी भर जाती है।
शूल बिछाकर आँगन मेरे,
नित घायल कर जाती है।
प्रीत जगाकर अगन लगाती, मुख क्यों मुझसे मोड़ा है।
सावन पतझड़ सा लगता है,
मौसम डँसता सपनों को।
कुसुमित अभिलाषा मुरझाई,
आज मना लो अपनों को।
विकल हृदय रोता है हर पल, गठबंधन क्यों तोड़ा है।
उन्मुक्त कंठ से सरगम गा,
चंचल लहरें छलती हैं।
आहत तन-मन झुलस रहा है,
साँसें मेरी जलती हैं।
जीवन का सच समझ न आए, धीर बचा अब थोड़ा है।
सजल नयन सूरत को तरसें, तम से नाता जोड़ा है।।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर