गीत..
गीत..
बदली- बदली सी तश्वीरें, आया कैसा दौर।
ढूँढ़ रहे हम बाजारों में, रोटी के दो कौर।।
घूर रहा बेचैनी लेकर, अब खुद को इंसान।
दूर हटाता ही वह जाता, रिश्तों से पहचान।
होते हैं जो निर्बल क्यों ना, होता उनपे गौर।
बदली- बदली सी तश्वीरें, आया कैसा दौर।।
संवादों में खोई दुनिया, जाने कैसी भूख।
संवेगों की जाती सरिता, अन्तर्मन से सूख।
दुर्व्यसनी अब हो बैठे हैं, बागों के सिरमौर।
बदली- बदली सी तश्वीरें, आया कैसा दौर।।
सत्कर्मों की बातें केवल, पन्नों तक द्रष्टव्य।
छीनाझपटी में दौलत के, मुस्काता मंतव्य।
आँसू बन चूती सच्चाई, बेबस हो हर ठौर।
बदली- बदली सी तश्वीरें, आया कैसा दौर।।
आज मशीनें बोल रही हैं, इंसानों की बोल।
मांग रही हैं राग- रागिनी, दरबारों से मोल।
सिखलाते कौवे हंसो को, उड़ने का हैं तौर।
बदली- बदली सी तश्वीरें, आया कैसा दौर।।
बदली- बदली सी तश्वीरें, आया कैसा दौर।
ढूँढ़ रहे हम बाजारों में, रोटी के दो कौर।।
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)