गीत
देखा है नन्हीं बिटियों को, कांधे पर कैशोर्य उठाते।
बोलो सुघर सांवले दूल्हे, किसे ब्याहने आए हो तुम?
फीतें वाली बांध चोटियां, इसी जगह पढ़ने आती थीं।
बागवान की पाली कलियां, किरणों में बढ़ने आती थीं।
यहीं मास्टर जी उन सबको नित दिन इमला लिखवाते थे।
इसी प्रांगण में हम उनको खो खो, गुट्टे खिलवाते थे।
बड़े चाव से देखा सब को अमियां, इमली, चूरन खाते।
इन में से ही होगी कोई जिसे, ब्याहने आए हो तुम?
जोड़ घटाने में कच्चीं थीं, पर कविताई सीख गईं थीं।
कामायनी, पुष्प अभिलाषा, औ चौपाई सीख गई थीं।
कोई कहती मुझे संस्कृत या अंग्रेजी समझ न आती।
कोई रख गृह कार्य अधूरा सखियों पर ही लाग लगाती।
कभी छड़ी से दीदी जी की इक दूजे को दिखीं बचाते।
इन में से ही होगी कोई जिसे, ब्याहने आए हो तुम?
कुछ तो रोटी भात बनाकर रखतीं तब पढ़ने आतीं थीं।
कुछ खेतों में धान लगातीं, इसीलिए कम आ पातीं थीं।
छटी, सातवीं ही जमात में बड़े – बड़े सपने जीतीं थीं।
नहीं पढ़ाएंगे अब आगे पिता, कई कुढ़कर कहतीं थीं।
आंखों की गुल्लक में देखा, बचपन की उम्मीद बचाते।
इन में से ही होगी कोई जिसे, ब्याहने आए हो तुम?
फ्रॉक पहन इठलाता बचपन, चुन्नी में सकुचाते देखा।
कक्षा की बैठक को लड़की – लड़के में बंट जाते देखा।
असर उम्र का सम्मुख मेरे गति नज़रों की बदल रहा था।
आँख किसी से मिल जाने पर ह्रदय किसी का मचल रहा था।
अंतिम दिवस उन्हीं आंखों को देखा आंसू से भर जाते।
इन में से ही होगी कोई जिसे, ब्याहने आए हो तुम?
यहीं रुकीं बारातें उनकी यहीं पढ़ा खेला करतीं थीं।
मुझे याद है बड़े ध्यान से वो अपनी पुस्तक रखतीं थीं।
जैसे वो रखतीं थीं पुस्तक, तुम भी उनको रखना दूल्हे।
वो कविताओं की किताब हैं, उनको मन से पढ़ना दूल्हे।
देखा तनिक बात पर रोते और तनिक पर ही मुस्काते।
उन में से ही होगी कोई जिसे, ब्याहने आए हो तुम?
© शिवा अवस्थी