गीत
वीभत्सता का क्रूर नृत्य
परिणाम था , संहार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
चहुँ ओर थीं , लाशें पड़ीं ।
बिन दाह के , जाती सड़ीं ।
मरघट बनी , रण भू यहाँ ।
दुर्गंध थी , फैली वहाँ ।
आतंक था , चीत्कार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
उर शोक से , पीड़ित हुआ ।
नभ हूक भर , शंकित हुआ ।
विध्वंस से , मन खिन्न था ।
ये युद्ध ही , कुछ भिन्न था ।
कुत्सित घृणित , ललकार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
थी खून से , लथपथ धरा ।
नर मुंड से , भूतल भरा ।
सिर हैं कहीं , धड़ हैं कहीं ।
पस-रक्त शव , बिखरे वहीं ।
ये दृश्य था , व्यभिचार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
खप्पर लिए , काली खड़ी ।
विकराल बन , रण में अड़ी ।
खूनी लटें , ग्रीवा फँसी ।
पी रक्त को , चंडी हँसी।
रंग लाल था , आधार का।
प्रण मौर्य के , विस्तार का।।
दो श्वान थे , शव नोंचते ।
आँखें गड़ा , वो भौंकते ।
कुछ गिद्ध भी , मँडरा रहे ।
आधे कटे , तन खा रहे ।
हर ग्रास था , उद्गार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
तलवार से , तुम प्रीत कर ।
हारे समर , हो जीत कर ।
धोया गया , सिंदूर घर ।
चूड़ी हरी , सब चूर कर ।
अभिशाप था , शृंगार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का।।
पूछे धरा , नृप मौर्य से ।
संतुष्ट हो , इस शौर्य से ?
असि वार ही , क्या कर्म है ?
हिंसा नहीं , सत धर्म है ।
मातम मना , त्यौहार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
माता सभी , धिक्कारतीं ।
चीखें विकट , हुंकारतीं ।
अब बह रहा , दृग नीर था ।
विचलित हुआ , रणधीर था ।
संत्रास था , अधिकार का ।
प्रण मौर्य के , विस्तार का ।।
पग बौद्ध के, पथ पर बढ़े ।
वे शांति की, सीढ़ी चढ़े ।
हिंसा तजी, कर साधना ।
हित दीनता , मन भावना ।
उर प्रेम भर , संसार का ।
प्रण मौर्य के विस्तार का ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी(उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर
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