गीत
मुखड़ा
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रंग वासंती छिने हैं, ज्वलित मन निर्जन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
अंतरा
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(1)तिमिर सम वैधव्य पाकर,रेत सूखी रह गई,
कामना भी राख बनकर,पीर सारी सह गई।
आँसुओं का शाप लेकर,सुलभ अभिनंदन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
(2)वेदना उर में धधकती,शूल चुभते देह में।
भग्न शोषित बेबसी भी,मौन है सुत नेह में।
रो रही है आज बदली,शून्य अब चिंतन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
(3)कुलजनों के घात सहकर,खो गई अवचेतना भी।
दिश भ्रमित उर वीथियों में,गुम हुई संवेदना भी।
वर्जनाओं के ग्रहण से, सिक्त अब आँगन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर, तप्त अब जीवन हुआ है।
(4)व्योम का दिनकर चमकता,
बन तनय आधार देगा।
दुग्ध का ऋण वो चुकाकर,मान रख विस्तार देगा।
भीति भय की ढह रही है,नव फलित उपवन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर