गीत
प्रकृति
नील नीरद नेह बरसाकर हँसाने आ गया,
पीर वसुधा की चुराकर गुदगुदाने आ गया।
वृक्ष, पर्वत, चंद्र, सूरज बन रहे उपहार हैं,
ऊष्ण, बंजर इस धरा का कर रहे शृंगार हैं।
हरित आभा देख भ्रमरा गुनगुनाने आ गया,
पीर वसुधा की चुराकर गुदगुदाने आ गया।
झील, नदियाँ, धवल धारा गीत मंगल गा रहीं,
तारिका के घट डुबोकर नीर अबला ला रहीं।
सोम सलिला में उतर यौवन लुटाने आ गया,
पीर वसुधा की चुराकर गुदगुदाने आ गया।
आज वर्षों बाद खुशहाली धरा पर छा गयी,
झूमकर माली कहे रौनक ज़मीं पर आ गयी।
रूप सतरंगी सुमन रखकर लुभाने आ गया,
नील नीरद नेह बरसाकर हँसाने आ गया,
पीर वसुधा की चुराकर गुदगुदाने आ गया।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’