गीत… हो रहे हैं लोग
गीत…
हो रहे हैं लोग अपने, आप पर ही मुग्ध जब।
गीत कोई यूँ किसी का, क्यों सुनेगा बैठ अब।।
बज रही इन तालियाँ में, लोग खोते जा रहे।
लग रहा अच्छा जिसे जो, राग वह ही गा रहे।।
पूछता है कौन किसको, सब हुए बेदार जब।
गीत कोई यूँ किसी का, क्यों सुनेगा बैठ अब।।
है नहीं अनुराग मन में, पर दिखावे का चलन।
पूछती खुशियाँ बेचारी, हो रही है क्यों जलन।।
लोभ के ऊँचे महल में, सज रहे हैं स्वप्न जब।
गीत कोई यूँ किसी का, क्यों सुनेगा बैठ अब।।
बन रहे योद्धा रथी सब, पर खड़े अपने लिए।
कह रहे वह बादलों से, जल जहाँ हमने दिए।।
मद सुगंधित हो रहा है, बढ़ रहा व्यापार जब।
गीत कोई यूँ किसी का, क्यों सुनेगा बैठ अब।।
खोखले संवाद की यह, हो रही जो खेतियाँ।
है बताई जा रही क्या, खूब इनकी खूबियाँ।।
बढ़ रहा हो झींगुरों का, मंच पर सम्मान जब।
गीत कोई यूँ किसी का, क्यों सुनेगा बैठ अब।।
हो रहे हैं लोग अपने, आप पर ही मुग्ध जब।
गीत कोई यूँ किसी का, क्यों सुनेगा बैठ अब।।
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)