गीत. यकीं जिस पर भी करता हूँ
गीत
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यकीं जिस पर भी करता हूं वही झूठा निकलता है
न जाने रंग कितने ही यहाँ इंसां बदलता है ।
कहीं पर प्यार होता है, कहीं व्यापार होता है
यहाँ जज्बात का सॊदा सरे बाजार होता है
इन्ही आबो हवाओं मे हमारा दम निकलता है
यकीं जिस पर भी करता हूं…..
यहाँ पर भैंस उसकी है, हो जिसके हाथ मे लाठी
यूँ बरसों से चली आई जमाने की ये परिपाटी
हो जिसका वक्त उसका ही यहाँ सिक्का उछलता है
यकीं जिस पर भी करता हूं…
कोई फुटपाथ पर सोता कोई महलों मे रहता है
रवानी मे कोई दरया की मॊजों संग बहता है
मुहब्बत का सिला पाने यहाँ हर दिल मचलता है
यकीं जिस पर भी करता हूं….
कहीं सुख के नज़ारे हैं कहीं दुख की निशानी है
बदलते हैं यहाँ मंज़र बदलती भी कहानी है
हमेशा रात कब रहती सुबह सूरज निकलता है
यकीं जिस पर भी करता हूं……
गीतेश दुबे ” गीत “