गीत खुशी के गाता हूँ….!
दर्द को अपने दिल में बसाकर, गीत खुशी के गाता हूँ
अपने मन के उथले तट पर, प्रेम की वीणा बजाता हूँ
पीड़ा के गीतों को लेकर
सुधियों की सरगम पर गाऊँ
भटकन की छितरी ज्वाला ले
तपता कोई साज बजाऊँ
प्यास को अपने होंठ सजाकर, शीतल जल बरसाता हूँ
अंबर घट का चातक बनकर, मौन खड़ा चिल्लाता हूँ
झील किनारे घर आँगन के
द्वार प्रीत की बाट निहारूँ
रक्तिम सी ढ़लती शामों में
आस की भीगी ओस गिराऊँ
चंदा को रातों में बुलाकर, चाँदनी शरद बिछाता हूँ
स्याह अंधेरों के पथ पर मैं, प्रणय के दीप जलाता हूँ
रुदन की लाचारी को लेकर
जीवन का अनुदान बनाऊँ
बिरह की छाया में पल–पलकर
नेह का मैं रसपान कराऊँ
व्यथा की स्वर्णिम किरण उगाकर, तन कुंदन चमकाता हूँ
भूले–बिसरे से सपनों में, इंद्रधनुष भर जाता हूँ
हूँ मैं इक निष्प्राण मूर्ति
जड़ में चेतन करूँ पूर्ति
खुद को खोकर पाना चाहूँ
जीवन की उल्लास कीर्ति
मन की निठुरता को मैं भगाकर, अपना शीश झुकाता हूँ
परिणय–मंथन से जो उपजे, फेरे भँवर घुमाता हूं
––कुँवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह✍🏻
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