गीतिका और ग़ज़ल
गीतिका और ग़ज़ल
काव्य की विधा ‘ग़ज़ल’ पहले से ही बहुत लोकप्रिय रही है जबकि आजकल गीतिका भी लोकप्रियता के शिखर को छू रही है। प्रायः यह प्रश्न उठता है कि ग़ज़ल के रहते गीतिका की आवश्यकता ही क्या है और दोनों में अंतर ही क्या है? जो उर्दू भाषा-व्याकरण को ठीक से नहीं समझते हैं अथवा उर्दू का सम्यक ज्ञान रखते हुए भी हिन्दी में कविता करने की इच्छा रखते हैं, उनके लिए गीतिका की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इसके साथ यह भी समझने की आवश्यकता है कि गीतिका और ग़ज़ल में क्या समानताएँ तथा क्या भिन्नताएं है? अस्तु, गीतिका विधा के प्रवर्तक के नाते इस लेखक के लिए दोनों को स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है जिससे कोई भ्रम न रहे।
गीतिका और ग़ज़ल में समानताएँ
1 दोनों में मुखड़ा/मतला, युग्म/शेर, तुकान्त-योजना, और कहन की अवधारणा एक जैसी है।
2 दोनों शिल्पबद्ध, अनुशासित और लयात्मक काव्य विधाएँ हैं।
गीतिका और ग़ज़ल में भिन्नताएँ
(1) गीतिका के पदों की लय हिंदी छन्दों पर आधारित है जबकि ग़ज़ल के मिसरों की लय बहरों पर आधारित है। छन्दों की संख्या हजारों-लाखों में है जबकि बहरों की संख्या बहुत सीमित है।
(2) गीतिका में हिन्दी-व्याकरण मान्य है जबकि ग़ज़ल में उर्दू व्याकरण का वर्चस्व रहता है।
(3) गीतिका में हिन्दी-शब्दावली की प्रधानता रहती है जबकि ग़ज़ल में उर्दू-शब्दावली की प्रधानता रहती है। वस्तुतः गीतिका में आँगन हिन्दी का होता है जिसमें उर्दू के शब्द अतिथि बन कर आते हैं जबकि ग़ज़ल में इसके विपरीत है।
(4) गीतिका में हिंदी भाषा के संस्कार रहते हैं जबकि ग़ज़ल में उर्दू भाषा के संस्कारों का वर्चस्व रहता है।
(5) गीतिका के युग्मों की संख्या सम या विषम हो सकती है जबकि उर्दू में अश’आर की संख्या प्रायः विषम ही मानी जाती है।
(6) गीतिका के युग्मों में पूर्वापर सापेक्षता और भावात्मक निरन्तरता होने पर उसे ‘अनुगीतिका’ के रूप में स्वीकार किया जाता है जबकि ग़ज़ल में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
(7) गीतिका में मात्रापतन एक छूट या दुर्बलता के रूप में स्वीकार किया जाता है जबकि ग़ज़ल में मात्रापतन को पूर्ण मान्यता प्राप्त है।
(8) गीतिका में ‘केवल स्वर आ, ई, ऊ, ए, ओ आदि’ का समान्त अनुकरणीय न होकर केवल पचनीय मात्र अर्थात निम्न कोटि का माना है जबकि ग़ज़ल में पूर्णतः अनुकरणीय है।
(9) निम्नलिखित प्रयोग गीतिका में मान्य नहीं हैं जबकि ग़ज़ल में मान्य हैं-
(क) अकार-योग या अलिफ़ वस्ल जैसे ‘हम अपने’ को ‘हमपने’, ‘तुम उसके’ को ‘तुमुसके’ कहना आदि।
(ख) पुच्छ लोप या हर्फ़े-जायद जैसे कबीर का मात्राभार 12 मानना अथवा आसमान को आसमां, ज़मीन को जमीं लिखना आदि।
(ग) दिल के दर्द को दर्दे-दिल लिखना आदि।
(घ) सुबह-शाम को सुबहो-शाम, लिखना आदि।
(च) तेरे को तिरे या मेरे को मिरे लिखना आदि।
(छ) बहुवचन में सवाल को सवालात, ख़ातून को ख़वातीन, शेर को अश’आर लिखना आदि।
(10) गीतिका में प्रयुक्त बोलचाल के उर्दू-शब्दों में ख़, ग़, ज़, फ़ आदि अक्षरों में अधोविंदु का प्रयोग अपेक्षित नहीं है जबकि ग़ज़ल में यथावश्यक अधोविंदु का प्रयोग अनिवार्य है।
(11) गीतिका में तुकान्त और मात्रा-गणना का निर्णय हिन्दी वर्तनी या व्याकरण के अनुसार होता है जबकि ग़ज़ल में यह उर्दू वर्तनी और व्याकरण के अनुसार होता है जैसे अल्ला और छल्ला के बीच हिन्दी में तुकान्त मान्य है किन्तु उर्दू में नहीं क्योंकि उर्दू में शुद्ध शब्द अल्लाह है। इसी प्रकार आज और नमाज के बीच हिन्दी में तुकान्त मान्य है किन्तु उर्दू में नहीं क्योंकि उर्दू में शुद्ध शब्द नमाज़ है।
(12) गीतिका रची जाती है जबकि ग़ज़ल कही जाती है अर्थात गीतिका में शब्दों का व्याकरण संगत शुद्ध रूप में प्रयोग होता है जबकि ग़ज़ल में वाचन अर्थात बोलने के अनुरूप प्रयोग होता है जैसे गीतिका में आत्मा का मात्राभार सदैव 4 ही होगा जबकि ग़ज़ल में इसे ‘आतमा’ जैसा बोलने के कारण इसका मात्राभार 5 होगा। ऐसे ही संयुक्ताक्षर वाले अनेक शब्दों को समझा जा सकता है|
अतः उचित यही है कि जब हम गीतिका रचें तो गीतिका के नियमों का पालन करें और जब ग़ज़ल कहें तो ग़ज़ल के नियमों का पालन करें। दोनों का भविष्य उज्जवल एवं लोकमंगलकारी हो, यही मेरी शुभकामना है!
– आचार्य ओम नीरव
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