गीता सार
भय एक वर्तमान की परिस्थितियों से भविष्य में होने वाले प्रभाव के काल्पनिक निष्कर्ष की मनोदशा है।
भय को जीतने के लिए सकारात्मक मनःस्थिती का होना आवश्यक है । जिससे वर्तमान परिस्थितियों का आकलन कर होने वाले परिणामों का पर्याप्त प्रज्ञा शक्ति से विश्लेषण कर अनुमान निकाला जा सके। और पर्याप्त साहस का निर्माण किया जा सके।
दान का तात्पर्य मानवीय संवेदना से प्रेरित सेवा भाव जिसमें साधन संपन्न व्यक्ति किसी निपन्न व्यक्ति के हित में अपने साधनों का अर्पण करता है।
दान की गई श्रेणियां हैं। जैसे धन का दान , अन्नदान, वस्तु दान , संपत्ति दान , विद्यादान , ज्ञानदान इत्यादि। प्राप्तकर्ता का सुपात्र होना दानकर्ता के व्यक्तिगत आकलन पर निर्भर होता है।
दम का अर्थ है इंद्रियों पर नियंत्रण। इंद्रियों पर नियंत्रण दृढ़ इच्छा शक्ति से मनोवेगों एवं विषय वासना पर नियंत्रण से ही संभव है। जिसके लिए कठोर तप की आवश्यकता है। जिसमें भौतिक सुखों के त्याग की भावना एवं माया मोह का त्याग सम्मिलित है।
यज्ञ का अर्थ है अनुष्ठान जो ईश्वरी शक्तियों का आवाहन है जो जनहित की कल्याणकारी भावना से किए जाते हैं।
स्वाध्याय का अर्थ ज्ञानार्जन एवं उसे परिमार्जित करने के लिए किया गया आत्म चिंतन। जिससे प्राप्त ज्ञान की जीवन में व्यवहारिक सार्थकता सिद्ध हो सके।
अहिंसा का अर्थ प्राणी मात्र के प्राणों की सुरक्षा की भावना है । यह समस्त प्राणियों के इस सृष्टि में सहअस्तित्व मे जीवित रहने का सार्वभौम अधिकार प्रदत्त करने की भावना है।
शांति का अर्थ है निर्विकार भाव जो समस्त बाहृय प्रभाव से निरापद रहे। यह एक शून्य अवस्था की अनुभूति है जो हमें इस भौतिक जगत से परे अलौकिक जगत में ले जाती है।
दया का अर्थ प्राणी मात्र के लिए संवेदना का भाव है। यह एक विशिष्ट मानवीय गुण है जो अंतर्निहित संस्कारों से पोषित होता है।
तेज का अर्थ : अंतर्निहित ज्ञान एवं संस्कारों से पोषित एवं विकसित प्रज्ञा शक्ति से निर्मित एवं प्रकाशित मुख मंडल की आभा एवं प्रभामंडल जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित हो तेज कहलाता है। दुष्ट व्यक्ति तेजोमय व्यक्ति की प्रभा शक्ति का सामना करने में अपने आप को असमर्थ पाते हैं।
क्षमा एक विकार हीन भाव है जो कष्ट पहुंचाने वाले के विरुद्ध प्रतिकार की भावना का त्याग है। यह वह गुण है जो क्षमा प्रदाता को श्रेष्ठ एवं महान बनाता है। तभी कहा गया है कि “क्षमाः वीरस्य भूषणम्” ।
दंभ अहम् की पराकाष्ठा का भाव है जो स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने की परिकल्पना है।
दंभी व्यक्ति अपने को उच्च स्थान पर पदस्थ कर दूसरों के प्रति निम्न एवं निकृष्ट भाव रखता है।
क्रोध मनोवेगों पर नियंत्रण खोने का भाव है जब मनुष्य की प्रज्ञा शक्ति क्षीण हो जाती है। बुद्धि का शरीर के क्रियाकलापों पर नियंत्रण कम हो जाता है। जिसका अप्रत्यक्ष प्रभाव उसके हितों पर होता है।
मोक्ष आत्मा के परमात्मा से मिलन की अनुभूति है। सांसारिक सुखों का त्याग कर मोह के बंधन से मुक्त अध्यात्म की पराकाष्ठा में निर्विकार भाव युक्त आत्मा के परमात्मा से एकीकृत होकर विलीन होने की स्थिती है। जिसे परम गति प्राप्त करना कहते हैं।