गीता सार : श्रृद्धा एवं त्याग
समर्पित भाव को ही श्रृद्धा कहते हैं। श्रृद्धा की अवस्थाएं समर्पण भाव की तीव्रता पर निर्भर करती है। पूर्ण समर्पण भाव श्रृद्धा की पराकाष्ठा है जो मनुष्य की आत्मा का सीधा संपर्क परमपिता परमेश्वर से स्थापित करती है।
मोह माया एवं भौतिक सुखों का त्याग ही त्याग की श्रेणी में आता है। कर्मों का त्याग नहीं। कर्म ही जीवन है बिना कर्म के मनुष्य जड़ होकर स्पंदनहीन हो जाएगा। श्रेष्ठ कर्म सिद्धि का मार्ग प्रशस्त तो अवश्य करता है परंतु इसका निर्धारण मनुष्य के हाथों में ना होता परमेश्वर के हाथों में होता है जिसे हम नियति कहते हैं। आसक्ति का त्याग विरक्ति के मार्ग सन्यास की प्रथम सीढ़ी है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को आसक्ति को छोड़कर एक योद्धा का कर्म करने की प्रेरणा दी थी। महाभारत युद्ध के पश्चात यही आसक्तिविहीनता पांडवों के सन्यास का कारण बनी।