गांव में विवाह होता था तो इस सीजन में होता था क्योंकि गेहूं,
गांव में विवाह होता था तो इस सीजन में होता था क्योंकि गेहूं, गन्ना कटने के बाद खेत खाली हो जाते थे और बारात को टिकाने (प्रबंध) के लिए अच्छी खुली जगह मिल जाती थी।
जहां बारात रुकती थी उसे जनवास कहते थे। जनवास का प्रबंध लड़के वाले ही करते थे। जनवास में जो टेंट लगता था उसका पैसा लड़के वाले देते थे। जनरेटर इत्यादि भी उनके तरफ़ का ही होता था।
लड़की वाले चारपाई, नाच के लिए तख्त की व्यवस्था कर देते थे।
बराती के स्वागत, नाश्ता कराने, भोजन करवाने के लिए सारा गांव एक पैर पर खड़ा हो जाता था।
जितने लोग घराती के मदद के लिए आते थे वो सारे बराती को नाश्ता भोजन करवाते जरूर थे लेकिन बेटी के विवाह में स्वयं भोजन नही करते थे।
बेटी के विवाह में जो लोग नेवता करने वाले रिश्तेदार आते थे वो पैसा, बर्तन,मिठाई, राशन, साड़ी, सिकौहिली, बेना इत्यादि लेकर आते थे। ये सब कुछ बेटी को दिया जाता था और बिटिया के घरवालों की इसी बहाने ज़िम्मेदारी कम हो जाती थी।
जब तक बारात विदा नही हो जाती थी तब तक सारे गांव वाले मदद के लिए तैनात रहते थे कहते थे कि बेटियां साझी होती हैं। बेटी के पिता की इज्जत सारे गांव वाले अपनी इज्जत मानते थे।
हर घर से बिस्तर, बर्तन, जरूरत का सारा सामान आ जाता था। गांव वाले ही मिलकर भोजन बना लेते थे। गांव के लड़के आटा गूंथते, लड़कियां पूड़ी बेलती, सारे नवयुवक भोजन परोसने का काम करते यूं मिल जुलकर विवाह हंसी खुशी निपट जाता था।
तब हॉल नही बुक होते थे। स्कूल, बगीचे, खेत में बारात रुकती थी।
सारे बाराती नाचते गाते दुआर चार के लिए जाते थे तो गांव के सभी लोग उनके अगवानी के लिए आकर खड़े हो जाते थे।
गांव के बुर्जुग कहते थे कि फलाने के द्वार पूजा होने जा रही है जाकर दस मिनट के लिए खड़े हो जाओ।
किसी के घर से यदि मतभेद भी हो तो भी बिटिया के विदा होते समय जरूर द्वार पर आ जाता था।
कितना अच्छा था पहले का समय कम खर्च में बड़ी अच्छी ढंग से बेटी का विवाह हो जाता था। गांव के लोग बेटी के पिता की ज़िम्मेदारी बांट लेते थे लेकिन आज ऐसा नहीं है अब तो सब मतलबी दुनिया है ऋतुराज वर्मा