गांव ,जैसे आम का आचार
गांव एक आम के आचार की तरह हैं।
जैसे ही गांव का नाम जुबां पे आया , यादों का पानी अपने आप बहने लगता हैं,बिल्कुल आचार की तरह।
फिर क्या ,हम उन यादों के सहारे गांव की ओर चल पड़ते हैं।
भले हमारे शरीर यहीं मौजूद रहता हैं
मगर दिल तो उन यादों के साथ गांव में धड़कने लगता हैं फिर सांसो का पेट्रोल भर के यादों का एसीलेटर हाथों में लिये, मन अपने गांव उसी समय रवाना हो जाता है।
जब हमारे लफ़्ज़ों पर गांव का नाम आया था।
उसी टूटी-फूटी सड़कों पर जिसपे कभी हमारा बचपन गिरते-संभलते चला था
और हम उसी टेढ़े-मेढ़े रास्तों से मन के वाहन पर सवार हो, यादों के झिल-मिलाते परदों को उठाने चल पड़ते हैं ख़ास ये समय हमे,तब मन को लुभाता है और जब वसंत का मौसम आता है और कोयल की मिठी राग चारो तरफ़ सुनाई पड़ने लगती हैं। हवाएं भी झोंके के संग खेलती हुई हमारे मन को अपनी ओर आकर्षित करने लगती हैं और हमें अपने दामन से लगाकर अद्भुत एहसास हमारे रोम-रोम में भर देती हैं। जिसे आज़ कल हम चाहकर भी रू-ब-रू नहीं हो सकतें।
क्योंकि भाग दौड़ के इस दुनिया में ,कहां वक़्त किसी को मिलता है कि वह बचपन के गलियों में , फिर दुबारा जी सकें।
बस यादें ही हमें उस बिछौने पे सुलाती हैं और जगाती हैं जहां हम हर पल जाना चाहते हैं
सारी बचपन की हठखेलिया जलेबी की चासनी की तरह ताज़ा हो आतीं हैं
कैसे बिना बताए घर से रवाना होना, आमों की चोरी करना, पेड़ों पे चढ़कर आम तोड़ना, ना-ना बहाने बनाना और बच निकलना
सभी दृश्य आंखों के सामने पूराने फिल्मों के बेग्राउडं की फ्लेश-बेक की तरह घूमने लगते हैं
दोस्तों की मौज-मस्ती, दादी-नानी की कहानियां।
लौटा ना पाती हैं ये आज कल की जवानियां।।
मन वहां जाकर एक अदभूत भ्रम के नगरी में पहुंच जाता है।
जिसे देखकर हम खुद को ढूंढने लगते हैं
ऐसा लगता हैं कि सब कुछ सामने है मगर कुछ भी सामने नहीं नज़र आता।
नीतू साह(हुसेना बंगरा) सीवान-बिहार