हवा और कानों का रिश्ता
गर्मियों में रात जब कभी उमस भरी होती थी और हवा का कहीं नामोनिशान नहीं होता था,
तो दादी को हवा से प्रार्थना करते हुए देखते थे कि वो चल पड़े ताकि थोड़ी राहत हो।
उस समय गांव मे बिजली भी न के बराबर घरो में थी, इसलिए रात को सोना आंगन या घर के बाहर ही होता था।
कभी कभी हवा जब दादी की इस प्रार्थना को अनसुना कर देती , तब दादी गांव के सात कानों(जिनकी एक आंख फूटी या खराब हो) का नाम लेने को कहती थी, जिससे पवन देवता(हवा और आंधी के पिता) प्रसन्न होकर फिर हवा को चलने का आदेश दे दें
और इस गर्मी से थोड़ी निजात मिले।
एक एक करके नाम गिनाने के बाद , हवा कभी चल भी देती और कभी काफी इंतजार कराने के बाद हवा चलती, तो यही माना जाता कि कहीं सूचना प्रसारण में कोई चूक रह गई होगी।
क्षणिक परेशानियाँ यदा कदा सामान्य ज्ञान से नाता तोड़कर कुछ भी मानने से एतराज नहीं करती।
कालांतर में , जब इनमे से एक दो कही चले गए तो इस सूची में फिर भेंगे शामिल किए जाने लगे, हवा ने भी हमारी संख्या की मजबूरियों को समझ कर , गठबंधन की इजाजत दे डाली थी शायद!!!
जब थोड़ी समझ आयी तो ये मान्यता बिल्कुल गलत लगी।
जो बेचारे खुद भाग्य की निष्ठुरता के शिकार हों, उनको एक अपशकुन की तरह समझना, हमारे अपने मानसिक दिवालियापन की निशानी थी।
उनको हंसी का पात्र समझ कर हम खुद अपने अंधे होने का परिचय दे रहे थे।
पर दादी तो दादी ही थी, उनके आगे हमारी क्या बिसात थी?
कुछ बोलने से सीधा यही सुनने को मिलता चार अक्षर क्या पढ़ना आ गया अब मुझसे जबान लड़ायेगा, आने दो तुम्हारे बाप को, आज तुम्हारी सारी करतूतें जो अब तक छुपा कर रखी थी, सबका कच्चा चिट्ठा खोलती हूँ।
ये धमकी मुँह पर ताला लगा देती थी।