श्राद्ध भोज
बहुत पहले की बात है गांव के किसी यजमान ने पितृ पक्ष में वार्षिक श्राद्ध के लिए मेरे दादाजी के बड़े भाई को न्यौता दिया।
वो देखने मे काफी तंदरुस्त थे किसी पहलवान की तरह लगते थे।
कहते हैं कि गांव की आढ़त मे जब “लाह” की खरीदफरोख्त का कोई सौदा होता था तो उसमें वहाँ की ठाकुरबाड़ी का भी एक अंश दानस्वरूप निकाला जाता था।
हाथ की मुट्ठी में जितनी लाह निकल आती थी वो ठाकुरबाड़ी के पुरोहितों को दे दी जाती थी। इस काम के लिए जब बड़े दादाजी जाते थे तो उनकी मुट्ठियों से डेढ़ किलो तक लाह निकल आती थी।
खैर, श्राद्ध वाले दिन बड़े दादाजी अपने चेलों के साथ यजमान के घर पहुंच गए। पितरों के तर्पन और अन्य श्राद्ध विधानों के बाद,
जब भोजन में खीर परोसी गयी और उसकी आपूर्ति छोटे छोटे कटोरों से की जाने लगी।
उन्होंने यजमान को बुलाया और कहा कि इन छोटे छोटे कटोरों से बात नहीं बनने वाली। एक काम करो, घर के सभी लोगों के लिए जितनी खीर लगेगी वो अलग कर लो बाकी यहां ले आओ।
यजमान ने भी आज्ञा का पालन करते हुए बची हुई खीर की कढ़ाई पंडित जी के सामने हाज़िर कर दी, जो दस किलो के करीब थी।
बड़े दादाजी और उनके चेलों ने मिलकर धीरे धीरे कर के पूरी कढ़ाई खाली कर दी।
यजमान की आंखे आश्चर्य से चौड़ी हो गयी।
फिर उसने मजाक मे पूछा, पंडित जी 2 किलो पेड़े और खा सकते हैं क्या।
बड़े दादाजी और चेलों ने कहा , हाँ मंगवा लो। नौकर को भेज कर पास की हलवाई की दुकान से पेड़े मंगवाए गए।
वो भी जब ख़त्म हो गए, तो बड़े दादाजी ने यजमान को कहा कि मुँह का स्वाद थोड़ा मीठा हो गया है , एक आध किलो नमकीन, भुजिया भी मंगवा ही लो।
यजमान ने हाथ जोड़ लिये।
बड़े दादाजी और चेलों ने यजमान को आशीर्वाद देकर विदा ली।
शाम तक जब घर नहीं पहुँचे तो घरवालों को चिंता हुई, खोजबीन शुरू हुई, बात यजमान तक भी पहुंची, उसे भी चिंता होने लगी कि उनके यहाँ से अल्पाहार कर के गए हैं कुछ हो न गया हो। उसने भी अपने नौकरों को इधर उधर दौड़ाना शुरू कर दिया।
तभी दूर देहात से गांव की ओर आते हुए व्यक्ति ने बताया कि बड़े दादाजी और चेले गांव से दो किलोमीटर दूर एक पेड़ की छांव के नीचे आराम कर लेने के बाद अब चौपड़ खेलने में व्यस्त हैं।
इस खबर को सुनकर घरवालों और यजमान ने चैन की सांस ली।
आज ये सब सुनकर थोड़ा अजीब लगे।
तेज कदमों से चलती जिंदगी और चमक दमक के पीछे, कहीं एक सीधा साधा जीवन, सरलता, बेफिक्री,एक दूसरे को साथ लेकर चलने की सोच बहुत पीछे छूट गयी है!!!!
ठीक उसी तरह, जैसे नई किताबें आ जाने पर पुरानी क़िताबें और कॉपियाँ रद्दी के भाव बिक जाती हैं , उसके साथ वो सबक भी जिस पर एक पेंसिल गुजरी थी और रुककर कुछ किनारे पर लिखा था, कि इस पर दोबारा गौर करना है।
दौड़ भाग में पीछे मुड़कर देखने का अवकाश अब कहाँ?