मटिया फुस फुस जी की रामलीला
ये इस रामलीला मंडली का सही नाम तो नही था, पर हम इसको इसी नाम से बुलाते थे क्योंकि इसके संचालक ने किसी एक नाटक में ” मटिया फुस फुस जी” का किरदार किया था। ये हास्य नाटक गांव में बहुत चर्चित रहा। तब से लोग इस मंडली को इसी नाम से बुलाने लगे।
गांव की सराय में इस रामलीला मण्डली का सामान ट्रक से उतरते ही, हम सब खुशी से झूम उठते थे कि अब एक महीने तक खूब रौनक रहेगी।
दो एक दिन बाद जब मंच सज जाता था, तब रात मे प्रवेश द्वार पर बैठे मंडली के सदस्य की थाली में पांच दस पैसे डाल कर अपने अपने आसन और चटाई बगल में दबाकर सब मंच के सामने जाकर बैठ जाते थे।
हारमोनियम पर “मटिया फुस फुस जी” और ढोलक , तबले थामे अपने शागिर्दों के साथ, मुस्कुराते हुए कोई भजन गाना शुरू करते थे।
फिर दो तीन लोक नृत्यों के बाद जिसे पुरूष कलाकार ही नर्तकी बन कर करते थे, राम कथा का मंचन शुरू होता था।
इस तरह के नृत्य बीच बीच में दर्शकों की मांग पर और कभी कलाकारों को थोड़ा विश्राम या पोशाक एवं साज सज्जा बदलने के लिए लगने वाले समय की भरपाई के लिए भी डाल दिये जाते थे।
हर रोज रामलीला का मंचन, बीच में कुछ देर के लिए रोका जाता था।
भगवान राम और सीता जी को मंच के बीचों बीच कुर्सी पर बिठा दिया जाता था। दो मालाएं मंगाई जाती और ये घोषणा की जाती थी कि जो श्रद्धालु कल रामलीला मंडली को अपने घर बुलाकर भोजन कराएगा वो मंच पर आए तथा मंच पर विराजमान राम जी और सीता जी को ये माला पहनाने का सौभाग्य प्राप्त करे।
ये कार्यक्रम दो तीन मिनटों में पूरा भी हो जाता था पर कभी कभी यजमानों को राजी होने में थोड़ा वक्त भी लगता था। तब तक आगे का रामलीला मंचन रुका रहता था।
माला चढ़ने के बाद बड़े उत्साह से दाता, दाता के परिवार यहां तक कि उनके कुकुर बिलार की भी जयकार कराई जाती थी।
कालांतर में,
नृत्यों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगी,
इन नृत्यों को तालियाँ भी खूब मिलती थी और पैसे भी।
बीच बीच में देने वाले के नाम की घोषणा भी की जाती थी।
कई बार कुछ शरीफ गुप्त दान देकर अपनी सराहना व्यक्त करते थे ,
तो कुछ बेबाक होते जवान “लाल मिर्च या हरी मिर्च “के नाम से भी पैसे दिया करते थे, नजरें इस बात पर गड़ी होती थी कि ये तथाकथित मिर्चें अपना नाम सुनकर पीछे खड़े अपने इन बेचारों को देखने का कष्ट जरूर करें।
गांव के बड़े बूढ़े इन हरकतों के लिए नए जमाने को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
इन नृत्यों से कोई अछूता न रहा , मेरे एक 13 वर्षीय सहपाठी, ने जब एक नृत्यांगना के तलवों में मंच के तख्त की उभरी एक कील चुभते देखी, तो उसका हृदय द्रवित हो उठा।
वह अपने बड़े भाई के मोज़े चुराकर, दूसरे दिन, आराम करती मंडली के पास पहुँचा ही था कि देखा “नृत्यांगना” लुंगी और गंजी पहने बीड़ी पी रहा था।
खैर ,मोज़े तो उसने दे दिए, पर वह जल्दी ही भारी मन से लौट गया। अब उसके मन में बड़े भाई के मोजे चुराने का पश्चताप भी था।
रह रह कर जलती हुई बीड़ी से उठता धुआँ उसे परेशान कर रहा था!!!