गांधी जी के आत्मीय (व्यंग्य लघुकथा)
गांधी जी के आत्मीय
भोलाराम की पत्नी एक दुर्घटना में कंधे की हड्डी फेक्चर हो गई सो कार्य की विवशता और छोटे बच्चे की देख-रेख के लिए पत्नी को बच्चों सहित ससुराल छोड़ना पड़ा। चूँकि नौकरी भी जरूरी थी इतनी छुट्टियां मिल पाना भी कठिन था इसलिए शनिवार की शाम को ससुराल खुद भी पहुंच जाते थे। सोमवार की सुबह फिर से ड्यूटी पहुँच जाते थे।
आज सोमवार का ही दिन है, सुबह-सुबह कोहरा भी बहुत अधिक था । भोलाराम ऑफिस की तैयारी कर रहे थे। सासु मां भोला के लिए साथ ले जाने हेतु भोजन तैयार कर रही हैं। पत्नी चोट के कारण असहाय सी बिस्तर पर बैठी थी। अचानक किसी ने आवाज दी। किंतु भोला वह आवाज न सुन पाएं थे। “राजू…राजू..उठ के नीचे जा” सासु माँ ने रसोई से राजू को आवाज दी। चूँकि साले साहब अभी सो कर नही उठे थे। अबाज सुनकर भोला रसोई के ओर भागे और पूछा “क्या बात है कैसे आवाज दे रहीं हैं”। “कुछ नही…आपके करने लायक कोई काम नही है” सासु मां ने उत्तर दिया। इधर पत्नी ने बिस्तर से आवाज दी “क्या बात है मम्मी.. मुझे बताओ, राजू तो अभी सो रहा है”। “नही..बिंदिया.. तुमसे नही होगा, तुम्हारे तो वैसे ही चोट लगी है” बिंदिया को समझते हुए सासु माँ ने कहा। शोर-शराबा सुनकर राजू भी बिस्तर से उठकर रसोई के पास आ गया। सासु माँ ने राजू से कहा “इतनी देर से आवाज दे रही हूँ सुनता नही है.. नीचे कूड़े वाला कितनी देर से इंतजार कर रहा है कूड़ा डाल आ!” राजू कूड़ेदान उठाकर कूड़ा डालने चला गया।
भोला भी बाल सँवारने के लिए कमरे के अंदर चले आये और ड्रेसिंग टेबल के सीसे में देखकर बाल सही करने लगे, सहसा! उनके दिमाग में प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत मिशन का चिन्ह (लोगो) चश्मा याद आ गया। चश्मा याद करते ही भोला को सीसे में स्वयं की जगह गांधी जी प्रकट होते दिखाई पड़े। ग़ांधी जी आंखों पर चश्मा लगाए और वही लाठी हाथ में लिए परंतु अपनी स्वाभाविक छवि, अहिंसा से विपरीत थे। उनकी लाल-लाल आंखे उनके चश्में से स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। गांधी जी अचानक सामने देख भोलाराम ने प्रणाम करते हुए कहा “बापू अचानक! यहाँ कैसे? और इतना गुस्से में भी पहलीबार देखे हो”। भोला की सहृदयता देख गाँधी जी मुस्कराये और बोले “सुन भोला! इन्हें बता कि वह (जो अभी आया था) कूड़े वाला नही है वह तो सफाई वाला है, कूड़े वाले तो यही है जो कूड़ा पैदा कर रहे हैं मेरी आत्मा आज भी इन सफाई वालों में बसती है इन्हें समझाना की इनका जितना सम्मान हो सके उतना करें”।
बापू की बात सुनकर भोला स्तब्ध रह गया और असमर्थता जताते हुए कहा “बापू! ये ससुराल है मेरे बाप का घर नही, यहाँ सास की चलती है आप की नही”। ससुराल की बात तो बापू भी समझते थे, सो बोले “अच्छा.. चलता हूँ भोला! हो सके तो किसी माध्यम से समझाने का प्रयास करना” कहकर बापू अंतर्ध्यान हो गए। बापू की बात को न समझा पाने का मलाल आज भी भोला को कचोटता है।
@पूर्णतः स्वरचित
-दुष्यंत ‘बाबा’
पुलिस लाईन, मुरादाबाद