गाँव
भारत बसता गाँव में,मुख्यतः कृषि प्रधान।
यही देश की आत्मा, यही देश की जान।।
भगवन की सौगात से ,भरा हुआ है गाँव।
देव सभी आते यहाँ, प्रेम भाव की छाँव ।।
मेल मिलापी जिन्दगी,लगता है सुखधाम।
करती हूँ मैं गर्व से,जय हे ! ग्राम्य प्रणाम।।
प्रकृति छटा मनमोहिनी,कितने सुन्दर रूप।
मनमोहक हर दृश्य है ,बाग-बगीचा कूप।।
शुद्ध दूध ताजी हवा,रंग-बिरंगें फूल।
कच्ची-पक्की सड़क से ,उड़ती रहती धूल।।
मक्के की रोटी मिले ,दूध-दही के खान।
सुबह-सबेरे जल्द ही ,होता है जलपान।।
हर ऑंगन तुलसी लगी ,दान-धर्म-सुख-सार।
हरियाली के बीच में ,है सुख-शांति अपार।।
हरी लहलहाती फसल ,भरा खेत-खलिहान।
बना हुआ है खेत में ,ऊँचा एक मचान।।
खेती तपती धूप में ,करते जहाँ किसान।
धरती माँ की कोख से ,पैदा करते धान।।
कभी भूल पाऊँ नहीं,इस मिट्टी की गंध।
घुला-मिला जिसमें रहा ,अपनों का संबंध ।।
सीधा-सादा-सा सरल ,जीवन जीते लोग।
एक-दूसरे को करें ,हर संभव सहयोग।।
घर मिट्टी से हैं बने ,घास-फूस खपरैल।
हल-हलवाहे हैं जहाँ ,दरवाजे पर बैल।।
चुल्हे मिट्टी के जहाँ ,मीठे गुड़ पकवान।
हुक्का पीते बैठ कर ,दादा जी दालान।।
चरवाहे के रूप में , गाय चराते भूप।
पनहारन मटकी लिए, लगे राधिका रूप।।
राम राम की है जहाँ , ध्वनि नित्य सुबह शाम।
चले हाय हेलो नहीं , कहते सीता राम ।।
चैता ,कजरी, फागुआ ,नित सोहर मलहार।
ओत-प्रोत संस्कार से , होते हैं त्यौहार।।
चिड़ियों की कलरव जहाँ ,कोयल कूके डाल।
श्वेत-लाल सुंदर कमल ,भरा हुआ है ताल।।
गाय-भैंस बकरी जहाँ ,कंडे गोबर खाद।
सादा भोजन भी लगे ,बड़ा गजब का स्वाद।।
बैठे पेड़ों की छाँव में , खाते रोटी प्याज।
खान पान के वो मज़े , कहाँ शहर मैं आज।।
नयना काजल लाज का ,बिछुआ पायल पाँव।
कोयल मीठी कूकती, कौआ करता काॅव।।
हल हलवाहे हैं जहाँ, भूसे गोबर ढ़ेर।
पके पेड़ पर आमिया, खट्टे मीठे बेर।।
अच्छा शहरों से लगे ,मुझको मेरा गाँव।
जुड़ी हुई जिस जगह से ,कुछ यादों के छाँव।।
मान बड़ों का हो जहाँ, छोटो को सत्कार।
जहाँ पड़ोसी भी लगे, अपना ही परिवार।।
लोग सुबह जल्दी जगे, जल्दी सोते रात।
हँसी ठहाके मसखरी, अपनेपन की बात।।
छटा मनोरम सुन्दरी,बसते जीवन गाँव।
देवता भी आते यहाँ, पड़़ते उनके पाँव।।
प्यारा प्राणों से लगे ,मुझको मेरा गाँव।
बरगद पीपल की जहाँ ,फैली शीतल छाँव।।
अपनी कविता में सजा ,लूँ आरती उतार।
ग्राम्य-देव नित वंदना ,नत सिर बारंबार।।
– लक्ष्मी सिंह