गाँव के दोहे
गाँव के दोहे
संगत में जब से पड़ा, सभ्य नगर की गाँव
अपना घर वो त्याग कर, चला गैर के ठाँव।१।
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मिलना जुलना बतकही, पनघट पर थी खूब
सब अपनापन मर गया, मोबाइल में डूब।२।
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बिछी सड़क कंक्रीट की, झुलसे जिसमें पाँव
पीपल कटकर गुम हुये, कौन करे फिर छाँव।३।
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सेज माल के वास्ते, कटे खेत खलिहान
जिससे लोगों मिट गयी, गाँवों की पहचान।४।
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सड़क योजना खा गयी, पगडंडी हर ओर
पहले सी होती नहीं, अब गाँवों की भोर।५।
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© लक्ष्मण धामी “मुसाफिर’