गाँव की साँझ / (नवगीत)
तप्त पठरिया
की नदिया से
इतराती, पर
सधी हुई-सी
भरी खेप
पनहारिन जैसी
उतर रही है
साँझ गाँव में ।
दौड़ लगाकर
पूँछ उठाकर
आती हैं
गायें रंभातीं ।
भेड़-बकरियाँ
बना पँक्तियाँ
चली आ रहीं
हैं मिमयातीं ।
बहुएँ जला
रही हैं चूल्हे ,
जोड़ रही
हैं टूटे कूल्हे ।
धधक रही है
छाती इनकी
सासों की
कर्कशा काँव में ।
गुंड-कसैंड़ी,
कलशे-गगरे,
कूप,नलों पर
भीड़ मची है ।
उछल रहीं हैं
मधुर गालियाँ,
तना-तनी में
रसा-कसी है ।
हार-खेत से
आते-आते ,
पोंछ पसीना
थकन मिटाते ।
बरगद के
नीचे चौरे पर
बैठ गए
मजदूर छाँव में ।
तप्त पठरिया
की नदिया से
इतराती, पर
सधी हुई-सी
भरी खेप
पनहारिन जैसी
उतर रही है
साँझ गाँव में ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी,(रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।