गाँव : उजड़ती संस्कृति और मुँह ताकते लोग
शीर्षक – गाँव : उजड़ती संस्कृति और मुँह ताकते लोग
विधा – आलेख
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो.- रघुनाथगढ़ सीकर राजस्थान।
मो. 9001321438
Email – binwalrajeshkumar@gmail.com
अरावली की तराईयों में अनेक सुरम्य गाँँव बसे हैं। अरावली श्रृंखला की रघुनाथगढ़ पहाड़ियों की तलहटी में बसा एक गाँँव रघुनाथगढ़। इसी गाँँव के माध्यम से भारतीय गाँँवों की संस्कृति की बात करते हैं। भारतीय संस्कृति गाँँवों में विकसित समृद्ध और संरक्षित रही है। नगरों की जीवन शैली हर काल में उच्छृंखल रही हैं।
नगर केवल आर्थिक गतिविधियों के केंद्र रहे। गाँँव आर्थिक रूप से समृद्ध होने के साथ-साथ संस्कृति के संरक्षण में भी अग्रणी रहे। भौतिकता की दौड़ में संस्कृति के हर मानदंड ध्वस्त हो रहे हैं। संस्कृति के उजड़ने के कारण भौतिक आर्थिक के साथ अंधानुकरण व्यवहार प्रणाली भी है। गाँँव में जहाँँ ऋतुचक्र से आने वाले त्योहार,उत्सव,जन्म-मरण, विवाह इत्यादि अनेक अवसरों पर सामाजिक समरसता और सामुदायिक सहयोग की प्रवृत्ति थी। वहीं आज ये प्रवृत्तियाँ लुप्त प्राय: है।
रघुनाथगढ़ में (गाँँवों में ) फाल्गुन माह लगते चंग की थाप पर थिरकते लोग,फाल्गुनी गीत-नृत्य और स्वांग होता।दिनभर की हताशा और थकावट को लोग इस सरस आयोजन से भूलकर तरोताजा हो जाते । महिलाएं मोहल्ले में एकत्र होकर होली के गीत गाती। बच्चे होली की हुडदंग में मस्त रहते। विवाह के अवसर पर 15-20 दिन पहले ही मंगल गान शुरू होते। जन्म के अवसर पर भी कई दिनों तक खुशनुमा माहौल रहता। नवरात्र के अवसर पर गाँँव की नाट्य मंडली रामलीला का आयोजन करती। मेले,तीज-त्योहार, दीपावली पर गाँँव में एक अलग ही चहल कदमी होती। वर्षा के समय पहाड़ी नदी-नालों का छल-छल कल-कल करता पानी। मोर की मधुर वाणी, लंगूरों की उछल कूद, मेंढक का मंत्रोचार, इनकी प्रकृति में एक अलग मनमोहक छटा थी। लोग सुख-दुख के सहभागी थे। चौपाल लगता। सेठ-साहूकारों की उदारवृति, गाँव की समस्या, लोगों की परेशानी का हल किया करते। प्रातः स्नान कर श्रद्धा पूर्वक मंदिर दर्शन,मधुर संवाद के साथ व्यवहार कुशलता। अनेक जातियाँँ मिलकर रहती। कोई वैमनस्य कटुता संघर्ष नहीं। बचपन बचपन से घुलता,जवानी जिम्मेदारी से टकराती और बुढ़ापा व्यवस्था का साथी बन जाता।
किन्तु! आज सारी व्यवस्था समरसता धाराशाही हो गई। यह बात सिर्फ रघुनाथगढ़ की ही नहीं सभी गाँँवों में संस्कृति लुप्त प्रायः हो गई। इस संस्कृति को मिटाने में ग्रामीण नेता के साथ आर्थिक,भौतिक,अंधानुकरण विवेकहीनता भी है।
पहले बात करते हैं ग्रामीण नेता की !
आजादी के कुछ सालों तक तो ग्रामीण व्यवस्था ठीक थी।इसका पतन धीरे-धीरे राजनीति के भयंकर राक्षस से हुआ। नेता बनने की राह ने जीवन की शैली के साथ संस्कृति को नष्ट किया। नेता वही बनता है आजकल जो संभोग की तरह जनसंभोग क्रिया जानता है।
संस्कृत की नी धातु से नेता शब्द बना। जिसका आश्य फल की ओर ले जाने वाला। नेता वही होता है जो जीवन को विकास के रास्ते पर ले जाकर सामाजिक जीवन स्तर में सुधार करें।
लोग नेता को राजनीति से जोड़ते हैं। नेता और राजनीति का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। नेता समाज का वरिष्ठ प्रज्ञावान कुशल व्यक्ति होना चाहिए। आजकल युवा नेता के नाम पर छोरीछेड़ बुद्धि वाले लोग ज्यादा सक्रिय हैं।
आज के नेता अब नेता नहीं अराजक तत्त्व हैं। जिस उम्र में अनुभव लेना, परिवार की जिम्मेदारी संभालना,सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन, रिश्तो की समझ, व्यवहार का गठन करना होता है उस उम्र में यह लोग नेता बनने की फिराक में रहते हैं। हिंसा के रास्ते अपने को नेता घोषित करते हैं।
एक तरह से ये तथाकथित ग्रामीण नेता जिन्होंने पूरी संस्कृति को भ्रष्ट किया दुश्चचरित्र छोरीछोड़ बुद्धि वाले होते हैं। नेतृत्व केवल समुदाय की वरिष्ठ सदस्यों को ही करना चाहिए। हिंसात्मक प्रवृत्ति के यह नेता पुलिस से साँँठ-गाँँठ कर विरोध करने वालों को षड्यंत्र का शिकार बना कर समाज की स्वस्थ धारा को नष्ट कर रहे हैं। स्वार्थ लोलुप लोग चापलूसी को बढ़ावा दे रहे हैं । आज के नेता संभोग को समाज में बढ़ावा दे रहे हैं।गुप्त क्रिया से समरसता प्रधान व्यवस्था को कामुकता की ओर धकेल रहे हैं।
गाँँव की स्वस्थ परंपरा को सबसे ज्यादा धक्का इन तुच्छ नेताओं की करतूतों से लगा। बेरोजगार छोरीछेड़ बुद्धि वाले का सबसे प्रिय पद है नेता।
ये नेता अघोषित जमींदार है। जमीन हड़पना, लड़ाना लूट करना ऊपर से मक्खन लगाना इनका देशी व्यापार है। कुतर्कों से पथभ्रष्ट करना इनका लक्ष्य रहता है। नित्य प्रपंचों का जाल बुनना इनका प्रिय कार्य है। आमजन को परिस्थितियों की साधारण समझ होती हैं। नकारात्मक पक्ष ही ज्यादा हावी रहता है। इसी का फायदा ये.कपटी लोग उठाते हैं। जिन्होंने पूरी ग्रामीण संस्कृति को रौंदा, लोग मुँँह बिदकाने के सिवा कुछ नहीं करते।
आधुनिकता के नाम पर विलासिता हावी हो गई। विज्ञापन की प्रणाली ने भ्रम जाल फैलाया। भौतिक साधनों को जुटाने की होड़ ने सामाजिक विश्वास, एकता और सहयोग को नष्ट-भ्रष्ट किया। अंतरजाल की प्रणाली ने मस्तिष्क को पैदल कर दिया।
आधुनिकता ! आजकल सवाल करने पर पर्दा डालने का साधन है। जनसामान्य अपनी संस्कृति को संभालने में समर्थ नहीं है। आदर्श की तलाश में छोरीछेड़ बुद्धि वालों का अंधानुकरण कर अपने और सामाजिक संस्कृति के लिए खतरा बन जाते हैं। गाँँव की शांतिप्रियता समरसता को भंग इन तथाकथित नेताओं ने, लोगों की झूठी व्यस्तता ने, भारतीय सिनेमा और विज्ञापनों ने की। संस्कृति उजड़ी जा रही हैं लोग मुँँह बिदकाने के सिवा कुछ नहीं करते। मुँँह ताकते देखते रहते हैं। समाज का पतन होता है तब लोग संस्कृति को पहले नष्ट करते है। संस्कृति को नष्ट करने वाले समाज के अगुवा ही होते हैं। आमजन संरक्षण करते है। लेकिन आजकल धनबल और बाहुबल से संस्कृति को नुकसान पहुँँचाने वाले लोगों के खिलाफ लोग एकजुट नहीं हो पा रहे क्योंकि सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं। जब-जब भी संस्कृति का पतन हुआ है उससे पहले मानवता विनाश के आगोश में चली जाती।