ग़लतफ़हमी है हमको हम उजाले कर रहे हैं
ग़ज़ल
ग़लतफ़हमी है हमको हम उजाले कर रहे हैं
सुख़न के नाम पर बस सफ़हे काले कर रहे हैं
सफ़र की मुश्किलें कुछ तो दिखाना भी है लाज़िम
सो रस्मन पाँव में हम ख़ुद ही छाले कर रहे हैं
हमें है भूख जीने की नहीं है पास रोटी
सो हम अब अपनी साँसों को निवाले कर रहे हैं
नहीं होंगे नसीब आँखों को अब कोई नज़ारे
सो हम आँखों को ख़्वाबों के हवाले कर रहे हैं
मेरे मशहूर करने में नहीं कुछ हाथ मेरा
कि मेरा नाम रौशन जलने वाले कर रहे हैं
हवाओं से लड़ेंगे देखना कब तक ये दीये
इन्हें हम ओट देकर तो जियाले कर रहे हैं
‘अनीस’ अब उनकी बातों पर भला क्या कान देना
सियासतदान है मस्जिद-शिवाले, … कर रहे हैं
अनीस शाह ‘अनीस’