ग़म हमें सब भुलाने पड़े।
ग़म हमें सब भुलाने पड़े।
ख़ुद पे’ ही जुल्म ढाने पड़े।
इस ज़माने के डर से हमें,
ज़ख़्म अपने छुपाने पड़े।
चंद सिक्को में वो बिक गये,
घर में जिनके ख़ज़ाने पड़े।
सादगी बस धरी रह गयी,
तीखे तेवर दिखाने पड़े।
पेट भरने की ख़ातिर यहां,
चार पैसे कमाने पड़े।
खुश रहें ज़िंदगी भर सभी,
रिश्ते नाते निभाने पड़े।
उड़ चला है “परिन्दा” वहाँ,
बस जहाँ चार दाने पड़े।
पंकज शर्मा “परिंदा”🕊