ग़ज़ल
रुतबा यहां सबका बहुत बड़ा बड़ा सा है
इस बस्ती का हर शख़्स तो डरा डरा सा है
छूट कर अपने ही खयालों की क़ैद से
आंगन हमारे मन का अब खुला खुला सा है
उम्मीद का दिया ही अब जलता नहीं यहां
शायद तभी से मन मेरा बुझा बुझा सा है
सौंप कर जागीर अपनी, हाथो में गै़र की
अब पूछते हो “क्यों सब लुटा लुटा सा है?”
देने को कुछ नहीं, मगर तन कर खड़ा है वो
लदा है जो फलों से, पेड़ वो झुका झुका सा है
© मीनाक्षी मधुर