ग़ज़ल
अपनों की कोई काट नहीं।
क्यों खाईं देता पाट नहीं।।
सुंदर प्यारे माॅल खुले हैं,
अब ढूँढे मिलते हाट नहीं।
सोफा,कुर्सी, झूला सब है,
घर में मिलती खाट नहीं।
सैर-सपाटा गंगा तट पर,
पहले से पावन घाट नहीं।
गाँवों में विद्यालय खोले,
भोजन है, पट्टी-टाट नहीं।
चाटुकारिता जिनका पेशा,
वे भी कहते हम भाट नहीं।
इज्ज़त पर लगता है बट्टा ,
तू थूक-थूक कर चाट नहीं।
डाॅ बिपिन पाण्डेय