ग़ज़ल
अपना कहीं पराया लगता है कोई
सामने होके साया लगता है कोई
अपने चेहरे रोज़ बदलता है कोई
गिरगिट जैसी काया लगता है कोई
पैसों में बातें करता है जीवन की,
दुनिया भर की माया लगता है कोई
रिश्तों पर जब धूप तेज हो जाती है
घने पेड़ की छाया लगता है कोई
एक दूजे से डर सबको यूँ लगता है
नर होकर चौपाया लगता है कोई
हँसता है मजबूरी में ऐसे कोई
फूल कहीं मुरझाया लगता है कोई
कोई ‘महज़’ बुलाने पर ही आता है
मेहमां बिना बुलाया लगता है कोई