ग़ज़ल
बह्र – 2122 1212 22
काफ़िया – ओं
रदीफ़ – का
#मतला
हुस्न की आब नूर ख्वाबों का।
सिर से पा तक शजर गुलाबों का।
#हुस्मन-ए-तला
ना ही मेलों का ना चुपालों का।
मज़्मा देखा वो अस्पतालों का।
#शेर
रूह तक काँपने लगी मेरी
हाल देखा जो ज़ख्म वालों का।
#शेर
अपना साया भी लग रहा भारी,
होश किसको भला निवालों का।
#शेर
साँस भी चल रहीं हैं रुक रुक कर,
ज़ख्म भरता ना दिल के छालों का।
#शेर
आयतें मेरी बेअसर सी रहीं,
बोल क्या नुक्स मेरे बयानों का।
#गिरह
तेरी बातों का तेरे वादों का।
जल रहा है चिराग यादों का।
#शेर
है कभी रंग तो कभी ख़ुशबू,
ज़िन्दगी खेल कुछ ही लम्हों का।
#मक़्ता
दोनों आलम हैं किसके वश ‘नीलम’
कौन वो शख़्स आसमानों का।
नीलम शर्मा ✍️