ग़ज़ल
है उसका काम चलना,चल रही है
हवा रहती कभी थमकर नहीं है,
मैं उस बस्ती में ठहरी हूँ जहाँ पर
दिया है,रौशनी है,घर नहीं है,
कभी मैं नींद में चौंकी हूँ यूँ भी
तेरे काँधे पे मेरा सर नहीं है,
मुहब्बत में मिली ये चोट तुझसे
ये इक सौगात भी क़मतर नहीं है,
मैं तेरी ओट से बचकर निकल लूँ
तू मेरी राह का पत्थर नहीं है,
उसे शिक़वा है अपने दुश्मनों से
कि मेरा एहतराम झुककर नहीं है,
दिखाए रास्ते पर चल रही हूँ
भले अब तू मेरा रहबर नहीं है,
बढ़ाये पाँव तो हो जाए बाहर
किसी मुफ़लिस की ये चादर नहीं है,
कभी तूने भी मुझको चाहा हो,क्यूं,,
मेरी आँखों में वो मंज़र नहीं है,
समय की मार ने तोड़ा जिसे हो
कभी होता खड़ा,गिरकर नहीं है।