ग़ज़ल
रस्ता, मंजिल बातें हुईं पुरानी अब,
नये शब्द में लिक्खें नई कहानी अब ।
बीमारी से आज की पीढ़ी लड़ती है,
खाद केमिकल खाकर पले जवानी अब ।
प्यास तिज़ारत कुछ लोगों की हाथों में ,
बेचें हमको हमी से लेके पानी अब ।
लोग बदी में ढूँढ रहें हैं अपनी खुशियाँ,
अच्छी आदत लगने लगी नादानी अब ।
ख़ुद पे यकीं नही है यकीं को इंसा क्या ,
करें फरिश्ते भी जैसे शैतानी अब I
कौतूहल का रंग लगे है फीका यूँ ,
कुछ भी होता होती नहि हैरानी अब I
भाव किताबी इंसा की इंसानियत I
‘महज़’ रह गयी बनके एक निशानी अब ।