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8 Mar 2024 · 1 min read

ग़ज़ल

122,122, 122,122
नमी ऑंख की कम नहीं हो रही है
जुदा पाॅंव से अब ज़मीं हो रही है

मिली चोट हमको मुहब्बत में ऐसी
नहीं आज राहत कहीं हो रही है

जहाॅं चोट खाई जिगर ने हमारे
दवा मर्ज की अब वहीं हो रही है

नज़र देखती है बहुत दूर लेकिन
नुमाया कहीं तूॅं नहीं हो रही है

जहाॅं प्यार के फूल खिलते कभी थे
वहीं आज बंजर ज़मीं हो रही है

मनोज कुमार महतो
बिरला पुर ( पश्चिम बंगाल)

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