ग़ज़ल
दिल मेरा जब आपके ही सादगी तक आ ….
जो कभी मासूम था, आवारगी तक आ गया।
कल तलक तुमसे बिछड़कर जी ही लेता मैं मगर…
आज तेरा ख़्वाब मेरी ज़िंदगी तक आ गया।
मुझको क्या मालूम था जलता दिखेगा ये शहर….
मैं तो बस चलते चलते रोशनी तक आ गया।
जिसको अपने हुस्न पर है दस्तरस उनसे कहो….
इश्क़ क्या इस दौड़ में अब जिस्म़गी तक गया।
मुझसे मत सुनिए खिलाफ़-ए-वफ़ा पर पेशकश…
इश्क़ के गुलशन से अब मैं बेरुखी तक आ गया।
एक वादा पर निसार- ए-जान भी न कर सका…
प्यार के किस दौड़ में इस बेबसी तक आ गया।
किस तख़ल्लुस के लिए अब मैं कहूंँ कामिल गज़ल?
जिनको तुम कहता था उनसे आप,जी तक आ गया।
दीपक झा रुद्रा