#ग़ज़ल-
#ग़ज़ल-
■ हर शाम घर जाता हूं मैं…!
【प्रणय प्रभात】
● अश्क़ हूं मोती सा गालों पे संवर जाता हूं मैं।
आंख से बहता हूं जब भी दिल में भर जाता हूं मैं।।
● ग़म से मेरी दोस्ती है ग़म मेरी तक़दीर है।
जितनी ग़म की आंच पाता हूं निखर जाता हूं मैं।।
● देखता हूं जितने नन्हे हाथ सिक्के मांगते।
शर्म से इक दिन में उतनी बार मर जाता हूं मैं।।
● बेसबब परवाज़ करता हूं हवाओं में मगर।
इक परिंदे की तरह हर शाम घर जाता हूं मैं।।
● मैंने इतनी बार खोई हैं सफ़र में मंज़िलें।
अब भटकते देख के औरों को डर जाता हूं मैं।।
● देख कर ज़िंदा मुझे वो हो न जाए शर्मसार।
एहतियातन सर झुका कर के गुज़र जाता हूं मैं।।
●उसको क्या निस्बत जो वो रोके मुझे देकर सदा।
ख़ुद ठिठक जाता हूं अक़्सर ख़ुद ठहर जाता हूं मैं।।
● मुझको बेअदबी हवा की रास आए किस तरह?
एक सूखे फूल की तरहा बिखर जाता हूं मैं।।
● हर क़दम पे एक रावण देखता हूं घूमता।
हर सुबह घर छोड़ के वनवास पर जाता हूं मैं।।
● देख लेता हूं कभी भी ख़ुद के दिल में झांक कर।
और ख़ुद अपनी निगाहों से उतर जाता हूं मैं।।
● लाख तौबा कर चुका हूं आह भरने से मगर।
ये ख़ता बेसाख़्ता बेवक़्त कर जाता हूं मैं।।
★संपादक/न्यूज़&व्यूज़★
श्योपुर (मध्यप्रदेश)