ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
बहुत मुश्किल हुआ जीना मोहब्बत की बहारों में
घुला है ज़हर-ओ-जबर आशिकी के नज़ारों में।।
यकीं का दौर अब नहीं, बदी-बेईमानियां कितनी
फ़रिश्ते चंद मिल पाते आसी मिलते हज़ारों में ।।
बहुत महंगा हुआ यारों बसर नेकी लिए करना ।
आदमी रोज़ बिकता है भरे मतलब बजारों में।।
बहुत जख्मी हुए हम रोज़ मगर टूट ना पाए
कोई अक्सीर ना मिली मिले खंजर हजारों में।।
कदम खुद ही बढ़ाए तो कहा इकबाल ऊंचा है
जहां फूलों के गुलशन थे ख़ार फैला दयारों में।।
यकीं कितना जियादा था तेरी खुशहाल बातों पर
भला कैसी हिफाजत है फूल बदले कटारों में।।
संभाला इस कदर खुद को खुदी को काट डाला है
लहू रिसता ही जाता है”मौज” दिल की दरारों में।।
विमला महरिया “मौज”
(आसी*-मुजरिम
अक्सीर*-पारस/ सब मर्जों की एक दवा)