ग़ज़ल
ज़िन्दगी
जीस्त ग़म की मकीन लगती है
अब कहाँ ये हसीन लगती है
रुकने देती नहीं ये एक पल को
चलती फिरती मशीन लगती है
मानती है नहीं किसी की भी
सिर्फ़ ये सामईन लगती है
ज़ख़्म देती है जब जिगर पर ये
कितनी ताज़ा तरीन लगती है
जीस्त में आदमी की ये ख़्वाहिश
एक दलदल ज़मीन लगती है
मौत का जब लिबास पहने तो
एकदम नाज़नीन लगती है
ओढ़ लेती है जब कफन प्रीतम
ज़िन्दगी महजबीन लगती है
प्रीतम श्रावस्तवी
श्रावस्ती (उ०प्र०)