ग़ज़ल
वो भी कहते रहे चुप्पियां छोड़ दो
शर्त मेरी भी थी तल्खियां छोड़ दो
ग़ैर वाजिब भी तुम दाम लेते रहो
बात ये मान लो अर्थियां छोड़ दो
ठंड में हाथ सेको मगर ध्यान से
जल न जाएं कहीं झुग्गियां छोड़ दो
तुम तो ममता की खुद एक पहचान हो
पेट में मारना बच्चियां छोड़ दो
धूप का एक टुकड़ा पुकारे तुम्हें,
बंद जो, वो खुली खिड़कियां छोड़ दो।
सच जो बोला तो झट काट ली है ज़ुबाँ,
और फिर कह रहे, सिसकियां छोड़ दो।।
खामखां बिजलियों पर न तुहमत लगे,
मत सुलगता हुआ आशियाँ छोड़ दो।
और भी इसमें अफसाने जुड़ने कई,
बस अधूरी मेरी दास्ताँ छोड़ दो।
रश्मि लहर