ग़ज़ल प्रतियोगिता के लिए
ज़िंदगी खेल खेलती है अब
सांप पे गोट आ कटी है अब
सर उठा कर चलूं तो बेअदबी
सर झुकाना भी क्या सही है अब
खून के दाग बहुत गहरे हैं
इस ज़मी पर मगर यही है अब
चाय पकती रही सियासत की
केतली आग झेलती है अब
वक्त इतना नहीं कि घर जाऊं
देश की आन ही बड़ी है अब
रोज आती है रोज जाती है
डाक है ख़त की पर कमी है अब
रेलगाड़ी सी चल पड़ी यादें
उठकर जंज़ीर खींचनी है अब
जख़्म अपने मनी हरे रखो
जंग दुनिया से जीतनी है अब
मनीषा जोशी मनी