ग़ज़ल
ग़ज़ल
वज़्न – 212 212 212 212
जिस्म मिट्टी हुआ रूह जाती रही
फिर न दीपक रहा औ’र न बाती रही ।
उसको हर हाल में ग़म छिपाना ही था
तो हँसी का मुखौटा लगाती रही ।
नाम बदनाम तो लकड़ियों का हुआ
पर हवा ही चिता को जलाती रही ।
आशियाने तलक पंछी उड़ना तो था
धूप लेकिन परों को जलाती रही ।
भूल जाने की कोशिश तो की थी बहुत
बेवफ़ा की मगर याद आती रही ।
– अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद
9897498343