ग़ज़ल सिर्फ ग़ज़ल है तेवरी नहीं! +तारिक असलम तस्नीम
‘सुपरब्लेज के बहस-स्तम्भ में भाई रमेशराज के विचार पढ़कर लगा कि उन्हें शायद बेवजह की थोथी बहस करने की आदत-सी है। वे ग़ज़ल के कुछ बदले हुए रूप को ‘तेवरी’ की संज्ञा देने पर उतारू हैं। बात समझने की है कि आदिमानव भी आदमी ही था, आज भी आदमी ही कहलाता है। और सदैव वह आदमी ही कहलाता रहेगा। अब यदि कोई रमेश जी-सा व्यक्ति आदमी के बदले हुए रूप को यदि कोई अन्य संज्ञा देने पर उतारू हो जाए तो सिवा उसकी अपाहिज महत्वाकांक्षा पर तरस खाने के अलावा उसको क्या कहा जा सकता है?
वर्तमान में गजल न तो प्रेमी-प्रेमिका के बातचीत के अर्थ में है और न ही हिरन के मुंह से निकली कराह है। प्रातः वन्दनीय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कथनानुसार, “साहित्य समाज का दर्पण है”। अतः साहित्य की सभी विधाएं भी इस कथन की अनुगामी हैं।
वर्तमान में काव्य की सभी उपविधाएं, अन्य विधाएं एवं अनुविधाएं वर्तमान की स्थितियों एवं परिस्थितियों से पूर्णरूपेण प्रभावित हैं। उसी प्रकार ग़ज़ल ने भी अपने तेवर समय के अनुरूप बदले हैं और अब वह कथ्य के आधार पर नहीं बल्कि प्रारूपमात्र है। अतः उसे ‘तेवरी’ या इसी प्रकार की कोई भी संज्ञा देना ठीक वैसे ही है- जैसे वर्तमान में आदमी को आदमी न कहकर कुछ और कहना।