ग़ज़ल–मेरा घराना ढूंढता है
आज भी वो याद में मेरा घराना ढूंढता है।
जो उसे मैंने लिखा वो खत पुराना ढूंढता है।
आदमी दो वक्त की रोटी कमाने के लिए ही,
ठोकरें खाता हुआ बस कारखाना ढूंढता है।
भूख से ऐंठा हुआ है पेट उसका इस कदर तो,
दरबदर हर मोड़ पर वो आब दाना ढूंढता है।
बात मन की कर रहा है बात मन की है नहीं ये।
देश का नेता यहां केवल खज़ाना ढूंढता है।
जो थका पंछी कभी उड़ता हुआ गर आसमां पर,
ताक मैं बैठा शिकारी तो निशाना ढूंढता है।
जिन परिंदों ने बनाया था कभी ना घोंसला खुद ।
वक्त का मारा हुआ अच्छा ठिकाना ढूंढता है।
अब भला हो भी भला किसका यहां मेरे खुदा सुन।
आज तो हर बात में मतलब जमाना ढूंढता है।
दौर ये साथी कज़ा का कब तलक चलता रहेगा।
घूमने का दिल मिरा कोई बहाना ढूंढता है।
रूप हो सुंदर जरूरी है नहीं वो चाह दिल की।
साफ दिल की हीर हो वो दिल दिवाना ढूंढता है।
पुष्पेन्द्र पांचाल