ग़ज़ल- तू फितरत ए शैतां से कुछ जुदा तो नहीं है- डॉ तबस्सुम जहां
तू फितरत ए शैतां से कुछ जुदा तो नहीं है
मत कर गुमां ए इंसा, कि तू खुदा तो नहीं है
मेरे अपने ही बेगाने बने बैठे हैं
मैं कैसी हूँ किसी से कुछ छुपा तो नहीं है
मेरे रब मेरे दुश्मन को भी सलामत रखना
ये मेरी दुआ है उन्हें बद्दुआ तो नहीं है
मेरे मालिक मेरे क़लम को इतनी क़ुव्वत दे
ज़मीं पर अभी हूँ आसमां छुआ तो नहीं है
डॉ तबस्सुम जहां