ग़ज़ल को ‘तेवरी’ क्यों कहना चाहते हैं ? डॉ . सुधेश
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रमेशराज जी आप ग़ज़ल को ‘तेवरी’ ही क्यों कहना चाहते हैं? ग़ज़ल जैसे लोकप्रिय शब्द के होते तेवरी, गीतिका, ग़ज़लिका जैसे शब्दों को चलाने की क्या आवश्यकता है? नीरज ने गीतिका शब्द चलाने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुए। ऋषभदेव शर्मा ने भी तेवरी शब्द का समर्थन किया था, पर बाद में मौन धारण कर लिया। यदि नया तेवर दिखाने का आग्रह है तो प्रत्येक सफल कविता में होता है। यदि नये तेवर की कविता तेवरी है तो उसका रूप ग़ज़ल की शैली का सहारा क्यों लेता है?
अब आपके संपादकीय पर कुछ साफ बातें- आप मात्रिक छन्द में लिखित ग़जल के समर्थन की कोशिश में मात्रा गिराना अर्थात दीर्घ स्वर को हृस्व स्वर के रूप में पढ़ने और लिखने की कोशिश के आलोचक हैं। आपके तर्क सही हैं। मात्रा गिराना उर्दू ग़ज़लों में आम है। पर उर्दू ग़ज़ल में उसे मान्यता प्राप्त है। तब हिन्दी कवि यदि अपनी ग़ज़ल में वृद्धि-ढंग अपनाये, तो उसे आप दोष क्यों मानते हैं?
श्री आर.पी. शर्मा महर्षि की पुस्तक मैंने नहीं देखी, पर आप द्वारा उन पर की गई आलोचना पढ़कर मुझे लगता है कि शर्माजी मात्रा गिराने की कोशिश के समर्थन में अति तक चले गए। मात्रा गिराने की कोशिश यदि मौखिक स्तर तक रहे तो अर्थ-बोध बाधित नहीं होता, पर जब उसे लिखित रूप में उतारा जाए तो वह बेहूदा कोशिश हो जाती है। एक बात और हिन्दी में केवल मात्रिक छन्द नहीं है, अतः आपका कथन दोषपूर्ण है। दूसरे शब्दों में यह कि यह आग्रह उचित नहीं है कि हिन्दी ग़ज़ल केवल मात्रिक छन्द में लिखी जाए तो क्या वर्णिक छन्द विधा केवल पुस्तक में परिगणित होने के लिए है?