गहराई तो माप प्रिये
लम्बाई-चौड़ाई छोड़ो, गहराई तो माप प्रिये।
माप अचंभित हो जाओगी, थाह हृदय की आप प्रिये।।
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जीवन की आपाधापी में, भले तुम्हारा ध्यान नहीं।
गर्वोन्नत है मस्तक मेरा, समझो यह अभिमान नहीं।
पीड़ाओं को सहता हूँ मैं, संघर्षों में घिरा हुआ।
लेकिन तुमको ख़ुश रखने की, करता हूँ दिन-रात दुआ।
कठिनाई रूपी रवि का नित, सहता हूँ मैं ताप प्रिये।
माप अचंभित हो जाओगी….!
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रोज़ निकलता हूँ मैं घर से, रोज़ी-रोटी पाने को।
घर-परिवार न तरसे जग में, अन्न-धान्य के दाने को।
कठिन परिश्रम करता हूँ मैं, प्रातः से ले सन्ध्या तक।
हालत ऐसी हो जाती है, सुहागिनी जस वन्ध्या तक।
मृदु मुस्कान तुम्हीं से लब पर, जब हो मेल-मिलाप प्रिये।
माप अचंभित हो जाओगी……….!
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बातें तुमसे कम हो पाती, तो मत समझो प्यार नहीं।
चैन नहीं मिलता तुमसे यदि, बातें हो दो-चार नहीं।
मुझको बड़ा लुभाता तुमसे, बातें करना दिन-प्रतिदिन।
बहुत अकेला हो जाता हूँ, जग में प्रिये तुम्हारे बिन।
व्यस्त बहुत हूँ जीवन में,यह, शीघ्र मिटे संताप प्रिये।
माप अचंभित हो जाओगी…….!
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महँगाई के मौसम में भी, बच्चों का मैं ध्यान रखूँ।
सामाजिक मर्यादाओं से, वृद्ध जनों का मान रखूँ।
घर का सारा राशन-पानी, रोज देखना पड़ता है।
पूर्ण न हो इच्छा बच्चों की, ओज देखना पड़ता है।
मैं तो चाहूँ कष्ट हमारे, उड़ जाएँ बन भाप प्रिये।
माप अचंभित हो जाओगी……..!
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देख रही हो मेरी हालत, तुम इससे अंजान नहीं।
जीवन की प्रत्येक दशा को, सह पाना आसान नहीं।
मुझसे ज़्यादा कहीं मुझे तो, स्वयं जानती तुम प्यारी।
कितने श्रम से हम दोनों ने, हरी रखी यह फुलवारी।
हे! ईश्वर इस फुलवारी पर, पड़े न दुख की खाप प्रिये।
माप अचंभित हो जाओगी……….!
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भाऊराव महंत
बालाघाट, मध्यप्रदेश