गर्मी और वर्षा
तपती हुई दुपहरीया, तन मन रही जलाइ ।
अंग अंग सुलगन लगे, कछू न जिया सुहाइ ।।
गरम गरम लू कर रही, हर एक को बेहाल ।
जनु थप्पड़ हों जोर के, लाल लाल हों गाल।।
पशु पक्षी व्याकुल भये, गैया रही रम्भाइ ।
ऐसी झुलसन में भला, राहत किसको आइ।।
नित प्रभात के संग ही, अरुण दिखावें आँख।
अंगारे सा जग जले, ज्यों होवन को राख।।
अति की गरमाहट बने, जब जीवन का काल।
वर्षा बन प्रभु आत हैं, रिमझिम रिमझिम चाल।।
टिप टिप वर्षा की झड़ी, खुशियाँ मन को देत।
प्यास बुझावत धरा की, हरे भरे हों खेत।।
सुलगत सी मरुभूमि भी, जीवन से भरि जाइ ।
वर्षा जादू सी छड़ी, चमत्कार करि जाइ।।
एक एक पत्ती कली, फूल शाख मुस्काइ ।
धरती का श्रंगार बन, हर्ष न हृदय समाइ ।।
सावन भादों माह में, जबहिं धूप खिलि जाइ।
चिप चिप करि दे देह को, काँटे सी चुभ जाइ।।
सुलगत मन और देह पर, बरसें बूंदें चार।
विरह अगनि भभकन लगे, चातक करे पुकार।।
हृदय हिलोरें लेत अरु, मन में जागे नेह।
बिजुरी चमकत जब गिरे, टिप टिप करता मेह।।